सुभागी
तुलसी महतो अपनी लड़की सुभागी से बहुत लाड़ करते थे। छोटी-सी उम्र में सुभागी घर के काम में चतुर और खेती-बाड़ी के काम में निपुण थी। वहीं, उसका बड़ा भाई कामचोर और आवारा था।
तुलसी ने सुभागी और रामू का विवाह कर दिया था। थोड़े दिन बीते। अचानक एक दिन बड़ी विपदा आ गई। सुभागी बहुत छोटी उम्र में ही विधवा हो गई। सुभागी के दुख की तो सीमा ही न थी। बेचारी को अपना जीवन पहाड़-सा लगने लगा। अब उसकी बाकी जिंदगी कैसे कटेगी? तुलसी और लक्ष्मी भी यही सोचते रहते थे। अब तो लोग भी तुलसी महतो पर दबाव डालने लगे कि सुभागी की दूसरी शादी कर दो। आजकल कोई इसे बुरा नहीं मानता है।
तुलसी ने कहा, "भाई सुभागी भी तो माने। वह किसी तरह राजी नहीं होती।"
हरिहर ने सुभागी को समझाकर कहा, "बेटी, हम तेरे ही भले के लिए कहते हैं। माँ-बाप अब बूढ़े हो गए हैं, उनका क्या भरोसा ? तुम इस तरह कब तक इनके यहाँ बैठी रहोगी?"
सुभागी ने सिर झुकाकर कहा, "चाचा मेरा मन शादी करने को नहीं करता। मुझे आराम की चिंता नहीं है। मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूँ। जो काम आप कहो, वह सिर-आँखों के बल करूँगी मगर शादी के लिए मुझ पर दबाव न डालिए।"
उजड्ड रामू बोला, "तुम अगर सोचती हो कि भैया कमाएँगे और मैं बैठी मौज करूँगी, तो इस भरोसे न रहना।"
सुभागी ने गर्व से भरे स्वर में कहा, "मैंने आपका आसरा भी नहीं किया और भगवान ने चाहा तो कभी करूँगी भी नहीं।"
अब सुभागी अपने माँ-बाप के साथ ही रहने लगी। वह घर का सारा काम करती। बेचारी पहर रात से उठकर कूटने-पीसने में लग जाती। चौका-बरतन करती, गोबर थापती, खेत में काम करने चली जाती और दोपहर को आकर सबको खिलाती।
रात्रि में माँ के सिर में तेल लगाती कभी उसकी देह दबाती । जहाँ तक उसका बस चलता, माँ-बाप को कोई काम न करने देती। हाँ, भाई को न रोकती। सोचती ये तो जवान आदमी हैं, ये काम न करेंगे तो गृहस्थी कैसे चलेगी?
मगर रामू को यह सब बहुत अखरता था। वह सोचता कि अम्माँ और दादा को तिनका तक नहीं उठाने देती और मुझे पीसना चाहती है। एक दिन वह आपे से बाहर हो गया। सुभागी से बोला "अगर उन लोगों का इतना मोह है तो क्यों नहीं अलग लेकर रहती हो। तब सेवा करो तो मालूम हो कि सेवा कडवी लगती है कि मीठी। दूसरों के बल पर वाहवाही लेना आसान है। बहादुर वह है, जो अपने बल पर काम करे।"
सुभागी चुप रही उसे बात बढ़ जाने का भय था। मगर महतो से न रहा गया। बोले, “क्या है रामू, उस ग़रीबन से क्यों लड़ते हो?"
रामू पास आकर बोला, "तुम क्यों बीच में बोलते हो? मैं तो उसको कह रहा हूँ।"
तुलसी- "मेरे जीते-जी तुम उसे कुछ नहीं कह सकते। मेरे पीछे जो चाहे करना। बेचारी का घर में रहना मुश्किल कर दिया है।"
रामू - "आपको बेटी बहुत प्यारी है, तो उसे गले में बाँधकर रखिए। मुझसे तो नहीं रुका जाता।"
तुलसी- "अच्छी बात है। मैं कल गाँव में पंचायत बुलाकर बँटवारा कर दूँगा। तुम चाहे अलग हो जाओ, लेकिन सुभागी किसी कीमत पर अलग नहीं होगी।"
रात को तुलसी लेटे तो वह पुरानी बात याद आई, जब रामू के जन्मोत्सव पर उन्होंने रुपये कर्ज लेकर जलसा किया था और सुभागी पैदा हुई तो घर में रुपये रहते हुए भी उन्होंने एक कौड़ी ख़र्च न की। पुत्र को रत्न समझा था, पुत्री को पूर्वजन्म के पापों का दंड। वह रत्न कितना कठोर निकला और यह दंड कितना मंगलमय।
दूसरे दिन महतो ने गाँव में पंचायत बुलाई। वह बोला, "पंचो, अब रामू का और मेरा एक घर में निर्वाह नहीं होता। मैं चाहता हूँ कि तुम लोग इंसाफ़ से जो कुछ मुझे दे दो, वह लेकर अलग हो जाऊँ। रात-दिन की बहस अच्छी नहीं।"
गाँव के मुखिया बाबू सजनसिंह ने रामू को बुलाकर पूछा, "क्यों जी, तुम अपने बाप से अलग रहना चाहते हो? तुम्हें शर्म नहीं आती, माँ-बाप को अलग किए देते हो? राम! राम!"
रामू ने ढिठाई के साथ कहा, "इसमें शर्म की क्या बात है। जब एक साथ गुजर न हो तो अलग हो जाना ही अच्छा है।"
यह कहता हुआ रामू वहाँ से चलता बना।
तुलसी - "देखा भाइयो। इसका मिजाज? भगवान ने बेटी को दुख दे दिया, नहीं तो मुझे खेती-बाड़ी लेकर क्या करना था। जहाँ रहता, वहीं कमाता-खाता। भगवान ऐसा बेटा बैरी को भी न दे। लड़के से लड़की भली. जो कुलवंती होय।"
इसी बीच सुभागी आ गई और बोली, "दादा, यह सब बँटवारा मेरे ही कारण तो हो रहा है. मुझे क्यों नहीं अलग कर देते?"
तुलसी ने कहा, "बेटी, यह नहीं हो सकता है। चाहे संसार छूट जाए।"
गाँव में जहाँ देखो सबके मुँह से सुभागी की तारीफ़। लड़की नहीं, देवी है। दो मदों का काम भी करती है। उस पर माँ-बाप की सेवा भी किए जाती है। सजनसिंह तो कहते, यह इस जन्म की देवी है।
मगर शायद महतो को यह सुख बहुत दिन तक भोगना न लिखा था।
सात-आठ दिन से महतो को बहुत तेज बुखार हुआ है। लक्ष्मी पास बैठी रो रही है। अभी एक क्षण पहले माइतो ने पानी माँगा था पर जब तक वह पानी लाई, तब तक उनके हाथ-पाँव ठंडे हो गए। सुभागी उनकी यह दशा देखते ही रामू के घर गई और बोली, "भैया, चलो देखो! दादा का सात दिन से बुखार नहीं उतरा।"
रामू ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा, "तो क्या मैं डॉक्टर-हकीम हूँ कि देखने चलूँ? जब तक अच्छे थे, तब तक तो तुम उनके गले का हार बनी हुई थीं। अब मुझे बुलाने आई हो?"
सुभागी ने फिर उससे कुछ न कहा, सीधे सजनसिंह के पास गई।
उधर सजनसिंह महतो की दशा सुनकर तुरंत सुभागी के साथ भागे चले आए। वहाँ पहुँचकर देखा कि महतो की दशा और भी ख़राब हो चुकी थी। नाड़ी देखी तो बहुत धीमी थी। समझ गए कि जिंदगी के दिन पूरे हो गए। सजल नेत्र होकर बोले, "अब कैसी तबीयत है?"
महतो जैसे नींद से जागकर बोले, "बहुत अच्छी है भैया! अब तो चलने की बेला है। अब तुम्हीं सुभागी के पिता हो। उसे तुम्हारे हाथों में सौंपे जाता हूँ।"
सजनसिंह ने रोते हुए कहा, "भैया महतो, घबराओ मत। भगवान ने चाहा तो तुम अच्छे हो जाओगे। सुभागी मेरी बेटी के समान है और जब तक जीऊँगा, उसे ऐसा ही समझता रहूँगा। तुम निश्चित रहो। कुछ और इच्छा हो तो वह भी कह दो।"
महतो ने विनीत नेत्रों से देखकर कहा, "और नहीं कहूँगा. भैया! भगवान तुम्हें सदा सुखी रखें।"
सजन - "रामू को बुलाकर लाता हूँ। उससे अनजाने में जो भूल-चूक हो गई हो तो क्षमा कर दो।"
महतो - "नहीं भैया। मैं उस पापी का मुँह नहीं देखना चाहता।" यह कहकर महतो ने आँखें मूँद ली।
इसके बाद गोदान की तैयारी होने लगी। रामू को गाँव भर ने समझाया पर वह अंत्येष्टि करने पर राजी न हुआ। कहा, "जिसने मरते समय मेरा मुँह देखना स्वीकार न किया, वह न मेरा पिता है, न मैं उसका बेटा हूँ।"
लक्ष्मी ने दाह-क्रिया संपन्न की। सुभागी ने इसके लिए सारी व्यवस्था को। इन थोड़े से दिनों में सुभागी ने न जाने कैसे रुपये जमा कर लिए थे। जब तेरहवीं का सामान आने लगा तो गाँव वालों की आँखें खुल गई।
तेरहवीं के दिन सारे गाँव के लोगों का भोज हुआ। चारों तरफ वाहवाही मच गई।
पिछले पहर का समय था। लोग भोजन करके चले गए थे। लक्ष्मी थककर सो गई। केवल सुभागी बची हुई बीजों को उठा-उठाकर रख रही थी कि ठाकुर सजनसिंह ने आकर कहा, "अब तुम भी आराम करो बेटी, सवेरे यह सब काम कर लेना।"
सुभागी ने कहा, "अभी थकी नहीं हूँ दादा। आपने जोड़ लिया? कुल कितने रुपये खर्च हुए?"
सजन "वह पूछकर क्या करोगी बेटी?"
सुभागी "कुछ नहीं, यों ही?"
सजन "कोई तीन हजार रुपये होंगे।"
सुभागी ने सकुचाते हुए कहा, "मैं इन रुपये की देनदार हूँ।"
पति के देहांत के बाद से ही लक्ष्मी का दाना-पानी भी छूट गया। सुभागी के आग्रह पर चौके में जाती, मगर निवाला गले के नीचे न उतरता। पचास वर्ष, एक दिन भी ऐसा न हुआ कि पति के बिना खाए उसने खुद खाया हो। अब उस नियम को कैसे तोड़े?
थोड़े ही दिन बीते थे कि उसे खाँसी आने लगी। दुर्बलता ने जल्दी ही खाट पर डाल दिया। बेचारी सुभागी अब क्या करें? ठाकुर साहब के रुपये चुकाने के लिए रात-दिन एक करने की जरूरत थी। यहाँ माँ बीमार पड़ गई। अगर बाहर जाए तो माँ अकेली रहती है। उनके पास बैठे तो बाहर काम कौन करे? माँ की दशा देखकर सुभागी समझ गई कि उसका अंतिम समय निकट है क्योंकि महतों को भी तो यही बुखार था।
सजनसिंह दोनों वक्त आते। लक्ष्मी की दशा निरंतर बिगड़ती जा रही थी। यहाँ तक कि पंद्रहवें दिन वह भी संसार से चल बसी। सुभागी को उसने आशीर्वाद दिया, "तुम्हारी जैसी बेटी पाकर तर गई। मेरा क्रिया कर्म तुम्हीं करना। मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि अगले जन्म में भी तुम मेरी कोख से ही जन्म लो।"
अब सुभागी के जीवन का केवल एक लक्ष्य रह गया सजनसिंह के रुपये चुकाना। तीन साल तक सुभागी ने रात को रात और दिन को दिन न समझा। उसकी कार्य-शक्ति और हिम्मत देखकर लोग दाँतों तले अँगुली दबाते थे। दिन भर खेती-बाड़ी का काम करने के बाद वह रात को गेहूँ पीसती। तीसवें दिन तीन सौ रुपये लेकर वह सजनसिंह के पास पहुँच जाती।
सुभागी की कीर्ति सुनकर गाँव-गाँव से उसकी सगाई के पैग़ाम आने लगे। सभी उसे अपने घर की बहू बनाना चाहते थे। जिसके घर सुभागी जाएगी, उसके भाग्य फिर जाएँगे। सुभागी यही जवाब देती "अभी वह दिन नहीं आया।"
जिस दिन सुभागी ने आखिरी किस्त चुकाई, उस दिन उसकी खुशी का ठिकाना न था। आज उसके जीवन का कठोर ह पूरा हो गया। वह चलने लगी तो सजनसिंह ने कहा, "बेटी, तुमसे एक प्रार्थना है। कहो कहूँ, मगर वचन दो कि नोगी।
भागी से कृतज्ञ भाव से देखकर कहा, "दादा, आपकी बात न मानूँगी तो किसकी बात मानूँगी?"
"मैंने अब तक तुमसे इसलिए कुछ नहीं कहा कि तुम अपने को मेरा देनदार समझ रही थी। अब रुपये चुकर दिए। मेरा तुम्हारे ऊपर कोई एहसान नहीं है। बोलो, कहूँ?"
सुभागी
"आपकी जो आता हो।"
"देखी मना न करता, नहीं तो मैं तुम्हें अपना मुँह फिर न दिखाऊँगा।"
सुभागी
"क्या आज्ञा है?"
सजन
"मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे घर की बहू बनकर मेरे घर को पवित्र करो। मैं जात-पति में विश्वास करता है, मगर तुमने मेरे सारे बंधन तोड़ दिए। मेरा बेटा तुम्हारी पूजा करता है। तुमने भी उसे देखा है। बोलो, तुम्हें स्वीकार है?"
सुभागी
"दादा, इतना सम्मान पाकर में पागल हो जाऊँगी।"
सजन
"तुम्हारा सम्मान भगवान कर रहे हैं बेटी तुम साक्षात भगवती का अवतार हो।"
सुभागी
"आप मेरे पिता समान हैं। आप जो कुछ करेंगे, मेरे भले के लिए ही करेंगे। मैं आपका हुक्म कैसे टाल सकती हूँ?"
सजनसिंह ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा, "बेटी. तुम्हारा सुहाग अमर हो। तुमने मेरी बात रख ली। मुझ-सा भाग्यशाली व्यक्ति इस संसार में और कौन होगा?"


